Thursday 30 August 2018

सिर्फ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाकू की तरह है जिसमें सिर्फ धार है। वह प्रयोग करने वाले का हाथ रक्तमय कर देता है।(रबींद्रनाथ टैगोर)

किसी विचार अथवा विशेष मुद्दे पर आधारित अपनी दलील रखना अथवा सुविचारित बात को रखना तर्क कहलाता है। तर्क एक यत्न है इसका उपयोग अत्यंत सोच-विचार से किया जाता है। तमाम व्यक्तियों को तर्क करने की आदत होती है। जोकि कई मायनों तक हानिकारक भी होती है। सोच-विचार के पश्चात अथवा ज्ञानविहीन व्यक्तियों के लिए तर्क चरित्रविहीन हो सकता है। इसी कारण तर्क देने से सामाजिकों को हानि का सामना करना पड़ता है। साहब ररवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस संदर्भ में लिखा है कि 'सिर्फ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाकू की तरह है जिसमें सिर्फ धार है। वह प्रयोग करने वाले का हाथ रक्तमय कर देता है।' साहब टैगोर के इस वाक्य से स्पष्ट है कि 'जो मानव-मस्तिष्क तर्क अथवा दलील का इस्तेमाल करता है, वो मानव अपने चरित्र का ही नुकसान करता है। साथ में, अपने हाथों को खून में भर सकता है।

मानव सभी फैसलें के उत्तर तार्किकता से देता है। अन्य व्यक्तियों को सोचने को मजबूर व तनाव में डाल देता है। प्रत्येक मानव, दिमाग की सहायता से ही तार्किक उत्तर देने में सक्षम होते है। किसी स्थान पर तर्क करने वाला समझदार होता है तथा कहीं-कहीं तार्किक उत्तर देने से व्यक्ति को अपने हाथ खून में बहाने पड़ जाते है। जिसका भारी नुकसान व्यक्ति को सामाजिक स्तर अथवा व्यक्तिगत भी झेलना पड़ता है। तर्क देने वाले का दिमाग अत्यंत धारदार होता है। धारदार का प्रभाव अत्यधिक होता है कि उसका प्रयोग करने वाले व्यक्तियों का हाथ रक्त में समा जाता है। तर्क करने वाला व्यक्ति समझदारीपूर्ण विषय को समझने के बाद तर्क अर्थात् विचार-विमर्श अथवा दलील व्यक्त करता है।तर्क हेतु मानव-मस्तिष्क में विवेकता की अत्यंत आवश्यकता होती है। व्यक्तिओं के हृदय में विवेकता की उपस्थिति करके तथा विवेकता का उपयोग कर स्वयं के लिए जटिलताओं तथा समाज के लिए अंकुश पैदा कर लेते हैं। इसी कारण तर्क एक सोचनीय विषय बन जाता है। तर्क व्यक्त करना जटिल तो होता है परन्तु तर्क व्यक्त करना लाभदायक सहित हानिकारक भी होता है। इसीलिए तर्क करने वाले व्यक्ति हेतु साहब टैगोर ने कहा है - तर्क का उपयोग करने वाले व्यक्तियों के हाथ खून में भर जाते है।

तमाम मुद्दों पर अपने विचार रखने के लिए भिन्न-भिन्न पंक्तियों में कब, कहां, कौन तथा कैसे प्रश्नसूचक शब्दों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करें। उन सुव्यवस्थित पंक्तियों को तर्क की श्रेणी में रखा जाता हैं। तर्क के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति अपनी बात को अन्य व्यक्तियों पर थोपने का कार्य करता है। किसी न किसी रूप में वह तर्क किसी अन्य व्यक्तियों को ठेस तो पहुंचाता है। इससे अन्य सामाजिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी कारण तर्क में दोनों श्रोता-वक्ता के परस्पर संवाद को सम्मिलित करना आवश्यक हो जाता है। तर्क के द्वारा सदैव वक्ता अपनी बात पर अड़ा रहता है, वक्ता तर्क के द्वारा ही अपनी बात मनवाने का भरपूर प्रयास करता है। चाहे किसी को लाभ हो या हानि, तर्ककर्ता प्रभावविहीन रहता है।

तर्क करना भी एक कला है। परन्तु समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम अपने तर्क में कुतर्क होने पर भी अड़े रहते है तो सामने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया अथवा तर्क को समझ पाने में असक्षम होते है। ऐसे में इसका खामियाजा तथा नुकसान स्वयं प्रत्येक तर्ककर्ता को भुगतना पड़ता है। ऐसे में तर्ककर्ता को इससे परहेज करना चाहिए तथा ऐसा तर्क न करें कि हमारे हाथ रक्तमय हो जाएं। मात्र तर्क ही न करें बल्कि तर्क सुनने का भी अवसर प्राप्त करें ताकि तर्क एक संवाद बन सकें, साथ ही सार्थक तर्क, ज्ञान और अनुभव प्राप्त हो सकें। यहीं सक्षम तर्क हो सकता है।

व्यक्ति किसी मुद्दे, विषय अथवा समस्या को सुलझाने के लिए एक-दूसरे से विचार विमर्श करता हैं, यहीं तर्क होता हैं। तर्क किसी भी विषय पर अपनी दलील, बात रखने की एक प्रक्रिया है। जिसमें तर्क भिन्न-भिन्न रूप प्राप्त करता है। जैसे- अध्यापक, प्राध्यापक, मित्र, राजनेता, साहित्यकार, पत्रकार तथा अभिभावक आदि से तर्क करना अच्छा होता है। परन्तु कभी-कभी तर्क करना कुतर्क में तब्दील हो जाता है। यहां तक कि तर्क बहस, विवाद अथवा मुद्दे का भी विषय बन जाता है। बहस या मुद्दे में तब्दील होने पर व्यक्ति को नुकसान पहुंचता है। ऐसे उदाहरणों को देखते हुए तर्क करना ख़तरनाक होता है। दरअसल, होता यह है कि तर्क करने वाला व्यक्ति अपने तर्क पर ही आधारित रहता है कि चाहे व्यक्ति का तर्क, कुतर्क ही क्यों न हों। परन्तु तर्ककर्ता अपने तर्क पर अड़ा रहता है। इससे तर्ककर्ता को भारी नुकसान झेलना पड़ता है। सुतर्क सदैव व्यक्तियों को अच्छाई में तब्दील करता है, इसके विपरीत कुतर्क सदैव व्यक्तियों को निचले स्तर पर पहुंचाता है।

तर्क करने वाले मानव-दिमाग को अपने ही कुतर्क को मानने से परहेज़ होना चाहिए ताकि अच्छा तर्ककर्ता बन सकें। साथ ही, श्रोता-वक्ता के मध्य संबंधों की वार्तालाप भी बनी रहें। व्यक्तियों को तर्क करने से पूर्व शब्दों का अच्छे ढंग से चयन कर लेना चाहिए ताकि व्यक्ति अच्छे ढंग से तर्क कर सकें। यदि अपने तर्क में व्यक्ति कुतर्क पर भी अड़ा रहें तो उसे नुकसान झेलना पड़ता है जोकि अक्सर होता है। इसी कारण साहब टैगोर ने भी माना है कि 'सिर्फ तर्क करने वाला दिमाग एक ऐसे चाकू की तरह है जिसमें सिर्फ धार है। वह प्रयोग करने वाले का हाथ रक्तमय कर देता है।'

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